अपने उस गाँव में



पीपल की छाँव में अपने उस गाँव में
सकरी और उजड़ी पर दिलकश उन राहों में
टूटे से घर में जलती दोपहर में
छिपते छिपाते दिल के शहर में
क्या अब भी कोई सुबह शाम से मिलती है
राधा कोई क्या घनश्याम से मिलती है

जमुना के कोई मुहाने की दस्तक
होती है दिल के किबाड़ों पे अब तक
इठलाते मौसम और मोहब्बत के किस्से
कब तक अकेले सिलूँ मैं वो हिस्से
तुम भी लिखो और मुझको बता दो
जेठ की आंधी अब भी क्या तूफ़ान से मिलती है
बड़े जतन कर सबरी क्या श्री राम से मिलती है

वो मिलजुल के रहना सराफत का गहना
हर एक आपदा को सदा साथ सहना
वो ईद और दीवाली जो संग संग मनायीं
यहाँ खीर पूरी वहाँ सेवइयां थी खायीं
यहाँ मुझको वैसा न दिखता समर्पण
टूटा हुआ सा अब मेरा है दर्पण
वहाँ क्या अब भी गीता कभी कुरान से मिलती है
सभी बंधन भूल आरती क्या अजान से मिलती है




टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (24-08-2017) को "नमन तुम्हें हे सिद्धि विनायक" (चर्चा अंक 2706) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  2. बहुत सुंदर रचना है आपकी ,मैंने आपकी कविताओं को पढ़ा बहुत आनंद मई कविता है मैने हाल ही में ब्लॉगर ज्वाइन किया है आपसे निवेदन है कि आप मेरे ब्लॉग विजिट में आए और मेरे पोस्ट पढ़े
    मेरे पोस्ट की लिंक
    https://shrikrishna444.blogspot.com/?m=1

    जवाब देंहटाएं

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