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आहिस्ता आहिस्ता बे खबर

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जिस दौर में मैं तुम में उलझा था तुम्हारी बातों में जज्बातों में मैं अपनी ही हस्ती मिटा रहा था आहिस्ता आहिस्ता बे खबर तुम्हारी बे तुकी ख्वाहिशों में तलब मैं जब बिक रहा था कतरा कतरा कुछ ख्वाबों को भुला रहा था आहिस्ता आहिस्ता बे खबर कि एक तुम्हें जीतने के समर में कुछ घाव रूह तक भी उछरे थे पर कई अपनों को हरा रहा था आहिस्ता आहिस्ता बे खबर तुम्हें इल्म न होगा मेरी बर्वादी का शायद खुद से आगे तुम सोच पातीं तो शायद काफ़ी पन्ने रहे ख़ाली मेरी किताब के शायद तुम चाहतीं तो होती पूरी कहानी शायद अब शायद से तो मेरा बजूद न लौटे शायद इश्क़ बाकई एक मजाक बन गया शायद हकीकत में तो मुझसे ये न हो पाता शायद पर कल ख्वाब में यादों को तेरी जला रहा था मैं अपनी ही हस्ती मिटा रहा था आहिस्ता आहिस्ता बे खबर आहिस्ता आहिस्ता बे खबर ~अनुपम चौबे~