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इंसान कहाँ हैं

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जाने कौन से गणतंत्र की बातें हर साल यूँही हम करते हैं इंसान कहाँ हैं मुझे दिखा दो जिनसे हक़ को हम लड़ते हैं जिसकी परिभाषा में ही बसता जनता का शासन क्यूँ राजा बनता है वो जिसको मिलता है आसन क्या देंगे अधिकार हमें जो खुद मन के भिखारी हैं भूखों को राशन के बदले बस मिलता है भासन दशकों बीत गए लेकिन हम तीन चीज से मरते हैं रोटी कपडा और मकान इन दैत्यों से हम डरते हैं इंसान कहाँ हैं मुझे दिखा दो जिनसे हक़ को हम लड़ते हैं मैंने भी सोचा अवसर पर गुणगान देश का कर डालूँ जो अतीत लहू से सींचा है पन्ना पन्ना में भर डालूँ किन शब्दों में लिखता पर जब आज निराशा बादी है मैं कवि हूँ सब कुछ देख भाल आँखों पर पर्दा कैसे डालूँ जिनकी अय्यासी का पैसा हम अपनी जेब से भरते हैं और स्वयं कहीं झोपड़ पट्टी में अक्सर यूँही सड़ते हैं इंसान कहाँ हैं मुझे दिखा दो जिनसे हक़ को हम लड़ते हैं जाने क्यूँ हम इतना लाचार बने हैं धर्म जात में बटने का आधार बने हैं कुछ करना है कुछ पाना है तो संग सभी को आना है हम क्यूँ अबला का लुटता एक संसार बने हैं चलो उठो गणतंत्र दिवस पर हम सभी प्रतिज्ञा क